Tuesday, January 28, 2025

IITian बाबा - मीडिया की सुर्खियों से कहीं आगे की चीज

जब से सोशल मीडिया हरेक हाथ में पहुँच गया है, तब से कौन सा व्यक्ति कब वायरल होकर प्रसिद्ध हो जाए, यह कहा नहीं जा सकता है। ऐसा ही एक व्यक्ति महाकुंभ 2025 शुरू होने के कुछ दिन बाद काफी ज्यादा वायरल हो गया है। IITian बाबा, जिनका असली नाम अभय सिंह है; हरियाणा के रहने वाले हैं और आईआईटी बॉम्बे से ग्रेजुएट हैं। उनके पेरेंट्स ने बताया कि उन्हें कनाडा में छत्तीस लाख का पैकेज मिल रहा था, लेकिन वो घर-परिवार और पैकेज सबकुछ छोड़कर कहीं चले गए। एक साल तक उनका कुछ पता नहीं चल और अब एक साल बाद वो एकाएक कुम्भ में फेमस हो गए हैं।


हम यहाँ खबरों की बात नहीं करेंगे। कुछ बातें हैं, जिनपर मुझे लगता है कि बात करना जरूरी है। पहली बात कि उन्होंने घर क्यों छोड़ा? उन्होंने सांसारिक जीवन क्यों छोड़ा? क्या वो हमेशा नशे में रहते हैं? उनके कुछ इंटरव्यू से उनका अभी का क्या विजन नजर आता है? अगर वो बाबा नहीं बनते तो क्या उनका समाज में योगदान ज्यादा होता या फिर कम? क्या अभय सिंह बाकी बाबाओं से अलग हैं? इन सारे प्रश्नों का जवाब हम एक-एक कर जानने की कोशिश करते हैं।



सबसे पहला प्रश्न कि उन्होंने अपना घर और सांसारिक जीवन क्यों छोड़ा? उनके कुछ इंटरव्यू से पता चलता है कि उनके पिता उनकी माँ को बहुत ज्यादा पीटते थे। वो अपनी माँ के लिए कुछ भी नहीं कर पा रहे थे। कुछ समय बाद उन्हें पता चला कि उनकी किसी महिला मित्र के साथ भी उनका पति ऐसा ही दुर्व्यवहार करता है और वो इन सबके लिए कुछ नहीं कर सकते। इतनी पढ़ाई, इतना ज्ञान होने के बावजूद वो कुछ नहीं कर पा रहे थे। उन्हें ऐसा महसूस हुआ जैसे जीवन में सबकुछ बेकार की छीजे हैं। अगर किसी के साथ भी ऐसी स्थिति या जाए तो उसे यही लगेगा कि जीवन में सबकुछ निरर्थक है। लेकिन घर और संसार का त्याग कर देना एक बहुत बड़ा फैसला है; यही मुश्किल निर्णय उन्होंने ले लिया और अपना जीवन वैराग की ओर मोड़ दिया। उनके इस वैराग के पीछे किसी और प्रेरणा से ज्यादा उनके घर और समाज का माहौल जिम्मेवार लगता है।

अगर उनके बोलने के ढंग को देखा जाए तो ऐसा लगता है, जैसे या तो वे डिप्रेशन में हैं या फिर काफी ज्यादा नशे में होते हैं। हो सकता है दोनों बातें गलत हों या फिर दोनों बातें सही हों। अगर सही हैं तो फिर इसके लिए जिम्मेवार कौन है? ऊपर ही हम चर्चा कर चुके हैं कि उनके घर का माहौल बचपन से ही काफी खराब रहा था। पिता माँ को बहुत ज्यादा पीटते थे। क्या हमारे घर का माहौल ऐसा होना चाहिए? आप कल्पना कीजिए कि हमारे समाज के आधे परिवारों का माहौल अभय सिंह के घर जैसा हो जाए और उस घर के आधे बच्चे भी वही निर्णय ले लें, जो अभय सिंह ने लिया है तो हमारे समाज की स्थिति क्या होगी? जिस सनातन के रक्षा की बात करते हम थकते नहीं, उसी सनातन धर्म का हरेक बच्चा अगर वैराग का रास्ता चुन ले तो फिर हमारे धर्म और समाज की हालत क्या होगी? एक काफी प्रसिद्ध लोकोक्ति है कि ‘भगत सिंह पड़ोस के घर में ही पैदा हों तो अच्छे लगते हैं’। हमें IITian बाबा इसीलिए अच्छे लग रहे हैं क्योंकि वो हमारे घर के नहीं हैं।

उनके कुछ इंटरव्यू से यह बात तो स्पष्ट है कि अभय ने भिन्न-भिन्न विषयों का काफी गहराई से अध्ययन किया है और उनमें काफी ज्ञान भरा हुआ है। वो अक्सर अध्यात्म को विज्ञान से जोड़ने की बात करते दिखाई देते हैं। उनका कहना कि हरेक विषय एक-दूसरे से लिंक्ड है और हमें इस बात पर चर्चा करनी चाहिए। इस बात से मैं भी बहुत हद तक सहमत हूँ। इसे एक छोटे-से उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं। बताया जाता है कि शून्य की खोज आर्यभट ने की थी और इसके संकेत की खोज 628 ई. में ब्रहमगुप्त ने की थी। कुछ विद्वानों का यह मानना है कि यह शून्य बौद्ध दर्शन के शून्यवाद से प्रेरित था। अर्थात उन विद्वानों ने दर्शन और गणित का आपस में संबंध दर्शाया है। कुछ ऐसी ही बातें करते IITain बाबा नजर आते हैं। उनका कहना है कि देश-विदेश से वैज्ञानिक, दर्शनशास्त्री, धर्मज्ञ, राजनेता आदि इस महाकुंभ में आयें और अपने क्षेत्र का ज्ञान दूसरे क्षेत्र के लोगों के साथ बाटें; अपने-अपने तर्क रखें और फिर सभी के कनेक्शन को समझें। महाकुंभ का असली मतलब उनके लिए यही है। उन्होंने बताया कि वो स्वयं भी सभी लोगों से बात करने और उनके विचार जानने ही कुम्भ में आए थे लेकिन जब से वो फेमस हो गए हैं तब से उनका किसी से बात करना आसान नहीं रह गया है। इस मामले में उनका विजन और उनका ज्ञान काफी उच्च श्रेणी का लगता है। उनका विजन काफी दूरदर्शी जान पड़ता है। वास्तव में महाकुंभ एक स्नान से ज्यादा अगर ज्ञान के आदान-प्रदान का केंद्र हो जाए तो फिर बात ही क्या हो! खैर...

अगर वो बाबा नहीं होते तो उनका समाज में क्या योगदान होता? उन्होंने आईआईटी से शिक्षा ली है और अन्य विषयों की भी जानकारी उनकी काफी अच्छी है। तो मेरी समझ तो यह कहती है कि अगर वो तकनीकी क्षेत्र में बने रहते तो शायद उनका योगदान समाज और मानव जाति के लिए ज्यादा होता। अगर हम अपने देश के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम की बात करें तो हम देखते हैं कि उन्होंने शादी नहीं की, सांसारिक जीवन में रहे और अपने ज्ञान का पूरा फायदा हमारे समाज को देकर गए। अगर अभय सिंह विदेश में रहकर भी कोई रिसर्च करते या तकनीक में कोई योगदान देते तो वो भी मानव कलयाणार्थ ही होता। अभी उनका विजन तो काफी अच्छा है लेकिन वो आम लोग, मीडिया और सोशल मीडिया के लिए एक मेटेरियल से ज्यादा नहीं हैं।

अब अंतिम प्रश्न पर बात करते हैं। क्या अभय सिंह बाकी बाबाओं से अलग हैं? इसका जवाब है हाँ बिल्कुल वो उन बाबाओं से अलग हैं जो अपने आप को काफी ज्ञानी और सनातन का ध्वजवाहक बोलते हैं। ऐसे बाबा आजकल न सिर्फ अपनी बातों से गंगा-जमुना तहजीब वाले देश में नफरत फैलाने की कोशिश करते नजर आते हैं, बल्कि तुरंत प्रसिद्धि पा लेने की भी ललक उनमें खूब नजर आती है। ऐसे बाबा या उनकी औडियो क्लिप आपको आमतौर पर इन्फ़लुनसर्स की रील्स में देखने को मिल जाती होगी। हाँ अभी भी बहुत सारे धर्मपरायण साधु हैं, जो नेपथ्य में रहकर सनातन की विचारधारा को प्रचारित करना अपना मूल कर्तव्य समझते हैं। लेकिन तत्काल प्रसिद्धि और धर्म के नाम पर ऊल-जुलूल बातें करने वाले धर्मगुरुओं की कमी आज किसी भी धर्म में नहीं है। अभय सिंह को मैंने एक इंटरव्यू में बोलते सुना कि आप मेरी बातें, मेरे विजन की बात करो न, आप क्यों मेरी बात लेकर बैठ जाते हो! लेकिन सच्चाई तो यह है कि हर कोई उन्हें ही देखना चाहता है, उनके विजन में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं है; इसीलिए मीडिया वाले भी उनकी ही बातें कर रहे हैं न कि उनके विजन की।

तो कुल मिलकर यही कहा जा सकता है कि एक बहुत ही ज्यादा शिक्षित और ज्ञान से आप्लावित व्यक्ति जो किसी और जगह रहकर समाज को काफी कुछ दे सकता था, वो अपने घर के कलुषित माहौल के कारण वैराग के मार्ग पर चला गया और उस मार्ग पर भी अगर थोड़ा बहुत कुछ वो योगदान दे सकता था तो उस संभावना को मीडिया कुचलती नजर या रही है।


Sunday, January 26, 2025

DIVORCE RIGHT OR WRONG ?

 

अभी मीडिया और सोशल मीडिया पर खबरें उड़ रही हैं कि पूर्व क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग और उनकी पत्नी एक-दूसरे से अलग हो गए हैं। इस खबर के आते ही लोगों में एक बार फिर से हो-हल्ला सा मच गया है कि आखिर लोग क्यों एक-दूसरे से अलग होते जा रहे हैं? अगर भारतीय क्रिकेटर्स की बात करें तो शिखर धवन, दिनेश कार्तिक, मोहम्मद सामी, विनोद कांबली, रवि शास्त्री, यह सूची और भी लंबी है; इन सभी के या तो डिवोर्स हो चुके हैं या फिर ये अपने जीवनसाथी से अलग रह रहे हैं। इसी तरह अगर बात की जाए फिल्म स्टार्स की तो आमीर खान, सैफ आली खान, करिश्मा कपूर, हृतिक रोशन, फरहान अख्तर, अनुराग कश्यप और यह लिस्ट भी काफी लंबी है; इन्होंने भी अपने पार्टनर से अलग रहना चुन लिया है।


अब आते हैं मुद्दे की बात पर! भारतीय समाज में अभी भी डिवोर्स को एक पाप, कोई अपराध, या फिर किसी शाप की तरह देखा जाता है। क्या तलाक को इस तरह देखना उचित है? इसका जो जवाब मेरे पास है उससे शायद नब्बे प्रतिशत भारतीय लोग सहमत न हों। जब हम किन्हीं दो लोगों का एक होना स्वीकार कर सकते हैं तो अलग होना स्वीकार करने में हमें दिक्कत क्यों होती है?

आज से कुछ वर्ष पहले तक भारत जैसे देश में, अगर मुस्लिम समुदाय को छोड़ दिया जाए तो तालाक या तो उच्च वर्ग में होता था या फिर एकदम ही लोअर क्लास में महिलायें या पुरुष एक-दूसरे को छोड़कर किसी और के साथ रहने लग जाते थे। मिडल क्लास में अगर किसी महिला का पति उसे छोड़ देता था (तब मिडिल क्लास महिलाओं के मन में अपने पति को छोड़ने का विचार दूर-दूर तक नहीं आता था) तो उस महिला प्रति लोग बहुत सहानुभूति रखते थे और पूरे समाज की यह कोशिश होती थी कि जितना भी मान-मनौल करना पड़े, लड़के को इस बात के लिए मना लिया जाए कि वह उस लड़की को न छोड़े। कोई इस बात को उस लड़की से पूछने की जहमत तक नहीं उठाता था कि वो उस आदमी या उसके परिवार के साथ खुश भी रह रही है कि नहीं। अगर शादीशुदा जीवन में दो लोग एक साथ रह रहे हैं तो परिवार की मरजाद बनी रहती थी।


अब समय बदल गया है। लड़कियों को आजादी मिली, वो पढ़ी-लिखीं, अपना सही-गलत समझने लगी हैं और अब अपने फैसले भी ले रही हैं। तालाक जैसे संवेदनशील मुद्दे पर बात एक तरफा नहीं की जा सकती है। आज से कुछ दशक पहले अगर लड़के को भी उसके मन मुताबिक लड़की नहीं मिलती थी तो वो भी परिवार और समाज के दबाव में उस रिश्ते को बेमन निभाते चला जाता था। अब लड़के भी परिवार और समाज के दवाब से अलग शादी करने, शादी न करने या फिर डिवोर्स लेने जैसे फैसले भी करने लगे हैं। आज जब एलिट क्लास के बाद भारत के आम मिडल क्लास परिवारों में तालाक की घटनायें धीरे-धीरे बढ़ती जा रही हैं, तो यह हमारे लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है; शायद हजारों वर्षों की परंपरा ढह रही है इसलिए ऐसा हो रहा होगा। मगर क्या डिवोर्स सचमुच इतना गलत है? अगर दो लोगों को यह लगता है कि वो अब साथ नहीं रह सकते तो उनका अलग-अलग खुश रहने का प्रयास करना बुरा है?

दुनिया के सबसे खुश देश फिनलैंड और दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका में सौ में से पचास शादियाँ डिवोर्स के रूप में समाप्त होती हैं। भारत में यह प्रतिशत अभी तक बहुत ही कम है। भारत में एक हजार शादियों में केवल एक प्रतिशत में डिवोर्स होता है। तो प्रश्न यह उठता है कि क्या डिवोर्स ले लेने से हमारी सामाजिक संरचना दरक कर टूट जाएगी; क्या हमारी अर्थव्ययस्था पिछड़ने लगेगी, या फिर हमारा देश ही नेस्तनाबूद हो जाएगा। इसका जवाब है— ऐसा कुछ नहीं होगा। हमारे समाज में स्वतंत्रता जितनी बढ़ेगी, हमारे निर्णय लेने की क्षमता में उतना ही इजाफा होता जाएगा। अपना करिअर चुनने का फैसला हो, अपना जीवनसाथी चुनना हो, किसी विचार से असहमति हो या फिर तालाक लेने जैसे अहम निर्णय ही क्यों न हों, हम जितने मेच्योर होते जायेंगे, हमारी दृष्टि उतना ही दूर तक देख पाएगी और हम अपना नफ़ा-नुकसान उतना ही ज्यादा समझ पायेंगे।

मुझे याद है कि आज से डेढ़-दो दशक पहले गाँव या फिर छोटे शहरों में लड़कियाँ दुपट्टे वाली ड्रेस नहीं पहनती थीं, तो इस तरह की बातें होने लगती थीं जैसे उसने कितना बड़ा अपराध कर दिया हो। आज मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि अगर कुछ घरों को अपवाद के रूप में छोड़ दिया जाए तो इस बात से किसी को कोई फर्क ही नहीं पड़ता कि किसी लड़की की देह पर दुपट्टा है भी कि नहीं। अन्तर्जातीय विवाह को समाज में स्वीकार करने की क्षमता वृद्धि देखी गई है। तालाक के मामले में अभी हमारा समाज नवजात है, यह हमारे लिए संक्रमण काल है।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि कुछ महिलायें तालाक के नाम पर मैनटेनेंस के रूप में ऊल-जुलूल माँगे रखती हैं और लड़के तथा उसके परिवार को बदनाम करने से लेकर दहेज उत्पीड़न के केस में भी धकलने का प्रयास करती हैं। मेंटेनेन्स के नाम पर बेतुकी माँगें अस्वीकार्य हैं। मैन्टेनेन्स के नाम पर आज जो काम इक्का-दुक्का लड़कियाँ कर रही हैं, कुछ दशक पहले विवाह के नाम पर ऐसा ही कुछ, किसी दूसरे रूप में, बहुतायत में लड़के और उनके परिवार वाले लड़की और उनके परिवार के साथ करते थे। आज समाज में परिवर्तन आ रहा है, हम बराबरी की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसे में अपने मन से रिश्ता चुनना और छोड़ने जैसे फैसले को बुरा नहीं समझना चाहिए। हाँ चाहे रिश्ता जोड़ना हो या तोड़ना हो, एक-दूसरे को दोनों चीजों के लिए समय जरूर देना चाहिए। जिस दिन इस बात को समाज सहजता से स्वीकार करने लगेगा लोगों का जीवन और भी आसान हो जाएगा।

इस लेख के बारे में आपकी क्या राय है हमें जरूर बतायें।

A MUST WATCH MOVIE -- SOOKSHMDARSHINI (सूक्ष्मदर्शिनी)

 

पाँच में साढ़े चार (4½*)

सूक्ष्मदर्शिनी एक मलयालम फिल्म है जो अभी हाल ही में डीजनी प्लस हॉटस्टार पर रिलीज हुई है। मूवी काफी रोचक है और हॉटस्टार पर हिन्दी में भी उपलब्ध है। यह एक मर्डर मिस्ट्री है लेकिन आपको फिल्म खत्म होने के लगभग आधे घंटे पहले यह एहसास होगा कि इस फिल्म में किसी का मर्डर हुआ है। कहानी काफी कसी हुई है और हिन्दी फिल्मों की मर्डर मिस्ट्री के विपरीत आप इसमें कभी भी यह अंदाजा नहीं लगा सकते कि फिल्म में आगे क्या होने वाला है।



फिल्म की कहानी शुरू होती है एक आम मिडिल क्लास सोसाइटी से। उस सोसाइटी के लगभग सारे परिवार एक वाट्स ऐप ग्रुप से जुड़े हुए हैं। अंटोनी और उसके परिवार को इस फिल्म की कहानी का केंद्र बनाया गया है। एंटनी किसी इन्श्योरेन्स कंपनी में एजेंट की नौकरी करता है और उसकी पत्नी प्रियदर्शिनी भी नौकरी की तलाश में है। उन्हीं के मोहल्ले का एक परिवार विदेश से इंडिया आता है और यहीं बसने की बात करता है। उस परिवार में मैनुअल अपनी बीमार माँ के साथ रहने आता है।

मैनुअल के माँ को भूलने की बीमारी रहती है और उनकी दवाइयाँ चलती रहती हैं। प्रियदर्शिनी की खिड़की मैनुअल के घर की तरफ ही खुलती है और उसे मैनुअल की कुछ गतिविधियाँ संदेहास्पद लगती हैं। मैनुअल की माँ का भूलने की बीमारी के कारण उनका अक्सर इधर-उधर खो जाना और मैनुअल का रवैया दोनों प्रियदर्शिनी को अजीब लगते रहता है। जितनी उत्कंठा से प्रियदर्शिनी मैनुअल के बारे में पता लगाने का यत्न करती रहती है, पूरी फिल्म में आपकी भी जिज्ञासा इस बात को लेकर बनी रहेगी कि फिल्म में पीछे क्या हुआ, अभी क्या चल रहा है और आगे क्या होने वाला है?



ये तो बात हुई फिल्म की कहानी की। ऐक्टिंग लगभग सभी की दमदार है; चाहे वो प्रियदर्शिनी का किरदार निभा रही ‘नज़रिया नज़ीम’ हों, मैनुअल हो या फिर मैनुअल की भूलने वाली माँ। आमतौर तेलुगु, तमिल और मलयालम फिल्मों से हम जिस तरह के मनोरंजन की उम्मीद करते हैं, यह फिल्म उन सभी पैमानों पर खरी उतरी है। मेरी तरफ से इस फिल्म को पाँच में से साढ़े चार स्टार दिए जा सकते हैं। अगर आपके पास भी डीजनी प्लस हॉटस्टार का सब्स्क्रिप्शन है तो आप भी ढाई घंटे की इस मूवी का आनंद ले सकते हैं।

Friday, January 24, 2025

THE SABARMATI REPORT

 

द साबरमती रिपोर्ट 2024 मे रिलीज हुई। यह फिल्म फरवरी 2002 मे गोधरा में ट्रेन में जला दिए गए कार सेवकों की कहानी या रिपोर्ट जो कह लें उसे उजागर कर रही है। फिल्म में यह भी दिखाया गया है कि किस तरह उस समय अंग्रेजी मीडिया हिन्दी मीडिया को कोई महत्व नहीं देता था।

गोधरा ट्रेन हादसे के बारे में पहले से ही सबको पता है लेकिन फिल्म में यह दिखाने की कोशिश की गई है कि किस तरह इंग्लिश मीडिया ने उस समय सच्चाई को छिपाने की कोशिश की और यहाँ फिल्म के लीड रोल में अभिनेत्री ऋद्धि डोगरा जो कि फिल्म में मणिका राजपूत का चरित्र कर रही हैं उन्हें यह बोलते दिखाया गया है कि ‘पत्रकारिता केवल फैक्ट दिखाना ही नहीं  है, बल्कि यह कोटेक्स्ट और बैलेंस है।’

यह कहानी घूमती रहती है कि कहानी के नायक विक्रांत मेसी के आस पास जो इस फिल्म में समर नाम के एक हिन्दी संवाददाता और कैमरामैन की भूमिका में हैं। वो गोधरा ट्रेन हादसे की ग्राउन्ड रिपोर्टिंग करने जाता है और वहाँ वो जो देखता है उसे जनता के सामने लाना चाहता है और उसके इस प्रयास को तथाकथित अंग्रेजी न्यूज चैनल वाले असफल कर देते हैं। इसके बाद उसे शराब की लत लग जाती है और फिर फिल्म में एंट्री होती है एक  और लीड रोल राशि खन्ना की जो इस फिल्म में अमृता गिल नामक पत्रकार का रोल निभा रही हैं। सच्चाई को सामने लाने के लिए दोनों की जद्दोजहद शुरू होती है और काफी सालों बाद उन्हें जीत मिल जाती है।

फिल्म कि कहानी काफी धीमी लगती है। अभी इस फिल्म के बनाए जाने का कोई मतलब समझ नहीं आता है। विक्रांत मेसी ने सेक्टर 36 और टवेल्थ फेल में जैसी ऐक्टिंग कर चुके हैं उस लिहाज से इस फिल्म में उनकी ऐक्टिंग भी काफी कमजोर दिखी है। राशि खन्ना के कैरिक्टर को तो काफी मजबूत दिखाया गया है लेकिन उनकी ऐक्टिंग भी निराश करती नजर आती है। इस फिल्म में सबसे दमदार ऐक्टिंग ऋद्धि डोगरा की है। डोगरा की ऐक्टिंग के अलावा इस फिल्म में और कोई चीज ऐसी नहीं है जो दर्शकों से फिल्म देखने की अपील कर सके।

मेरी तरफ से इस फिल्म को पाँच में से डेढ़ सितारे काफी हैं।   

Wednesday, January 22, 2025

गोदान

 

गोदान हिन्दी के महानतम उपन्यासों में से एक है। इस एक उपन्यास में उस समय के ग्रामीण जीवन की लगभग सारी समस्याओं को बेहद जीवंतता के साथ प्रस्तुत किया गया है। किसानों के ऊपर बढ़ते कर्ज, समाज की झूठी मरजाद की रक्षा, लगान की व्यवस्था, जातधरम का आडंबर, समाज में महिलाओं की स्थिति, पुलिस और मुकदमें से लोगों में व्याप्त भय, ये सभी सामाजिक समस्याएं तो उपन्यास में प्रमुखता से हैं ही साथ ही एक नायक का कुछ छोटी-मोटी चोरी या बेईमानी कर लेना, पिता-पुत्र के बीच पीढ़ियों की सोच में टकराव, अनैतिकता का भास होते हुए भी कुछ प्रसंगों में किसी स्त्री-पुरुष के बीच आकर्षण हो जाना, ये कुछ ऐसे मनोवैज्ञानिक पहलू हैं जिसे प्रेमचंद ने बहुत ही बारीकी से उजागर किया है।


यह उपन्यास प्रेमचंद का अंतिम प्रकाशित उपन्यास है; और इसे पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन का अनुभव, गांधीवादी विचारधारा का कुछ अंश, हँसी-विनोद और जीवन के तमाम संघर्षों को एक साथ एक कसे हुए कथानक के साथ प्रस्तुत कर दिया है। हालाँकि इस उपन्यास को ग्राम्य जीवन का महकाव्यातकम उपन्यास कहा गया है, लेकिन इसमें मिस्टर मेहता, राय साहब, ओंकारनाथ, मिस्टर खन्ना और मिस मालती आदि कुछ चरित्रों के माध्यम से शहरी चकाचौंध और तत्कालीन शहरी जीवन में व्याप्त आपाधापी का भी विशद चित्रण देखने को मिलता है।

भाषा-शैली के लिहाज से यह उपन्यास अपने स्वभाव के अनुसार ही मालूम होती है। इस उपन्यास में आम जन की कहानी है और भाषा भी बिल्कुल आम जन की ही है। उपन्यास में लगभग सारे संवाद काफी यातार्थपरक हैं; लेकिन कुछ संवाद जैसे —— “एक मजदूर अमीर होता है तो वो किसान बनता है और जब एक किसान गरीब होता है तो वो मजदूर बन जाता है।” ऐसे हैं जो कहानी को और गति देते हैं घटनाओं को जीवंत बनाते नजर आते हैं।

चरित्रों की नजर से उपन्यास को देखा जाए तो उपन्यास की परिस्थियों के अनुसार सबसे मजबूत चरित्र धनिया का है। धनिया का बेटा गोबर भी आने वाली पीढ़ी में बदलाव के संकेत देता हुआ दिखाया गया है। मिस मालती स्त्री शशक्तिकरण की प्रतीक के रूप में जान पड़ती हैं, वहीं मिस्टर खन्ना की पत्नी को एक आदर्श भारतीय नारी की तरह प्रदर्शित किया गया है। होरी मरजाद की रक्षा करने के लिए अपनी जान तक भी दे सकता है; वहीं दातादीन, झींगुरी सिंह आदि कुछ ऐसे साहूकार हैं, जिन्हें किसानों का रक्त चूसने के बाद भी चैन नहीं पड़ता। उपन्यास को पढ़ते हुए ऐसा जान पड़ता है मानो समाज में मौजूद प्रत्येक व्यक्ति का कोई न कोई प्रतिनिधि उपन्यास में मौजूद है।  

एक मजबूत कथानक, उत्कृष्ट चरित्र योजना, घटनाओं का क्रमिक विकास, चुस्त संवाद, यथार्थ से नजदीकी आदि उपन्यास के प्रत्येक तत्व के लिहाज से यह उपन्यास श्रेष्ठ जान पड़ता है। अगर आपने अभी तक यह उपन्यास नहीं पढ़ा है और पढ़ना चाहते हैं तो कमेंन्ट में बता सकते हैं।

 

 

भारत-पाकिस्तान सैन्य संघर्ष : किसे क्या हासिल हुआ?

  हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच आठ मई 2025   के बाद हुए सैन्य संघर्ष के बाद दस मई को दोनों पक्षों की ओर से सीजफायर की घोषणा कर दी गई। दस म...