अभी मीडिया और सोशल मीडिया पर खबरें उड़ रही हैं कि पूर्व क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग और उनकी पत्नी एक-दूसरे से अलग हो गए हैं। इस खबर के आते ही लोगों में एक बार फिर से हो-हल्ला सा मच गया है कि आखिर लोग क्यों एक-दूसरे से अलग होते जा रहे हैं? अगर भारतीय क्रिकेटर्स की बात करें तो शिखर धवन, दिनेश कार्तिक, मोहम्मद सामी, विनोद कांबली, रवि शास्त्री, यह सूची और भी लंबी है; इन सभी के या तो डिवोर्स हो चुके हैं या फिर ये अपने जीवनसाथी से अलग रह रहे हैं। इसी तरह अगर बात की जाए फिल्म स्टार्स की तो आमीर खान, सैफ आली खान, करिश्मा कपूर, हृतिक रोशन, फरहान अख्तर, अनुराग कश्यप और यह लिस्ट भी काफी लंबी है; इन्होंने भी अपने पार्टनर से अलग रहना चुन लिया है।
अब आते हैं मुद्दे की बात पर! भारतीय समाज में अभी भी
डिवोर्स को एक पाप, कोई अपराध, या फिर किसी शाप की तरह देखा जाता है। क्या तलाक को
इस तरह देखना उचित है? इसका जो जवाब मेरे पास है उससे शायद नब्बे प्रतिशत भारतीय
लोग सहमत न हों। जब हम किन्हीं दो लोगों का एक होना स्वीकार कर सकते हैं तो अलग होना
स्वीकार करने में हमें दिक्कत क्यों होती है?
आज से कुछ वर्ष पहले तक भारत जैसे देश में, अगर मुस्लिम समुदाय को छोड़ दिया जाए तो तालाक या तो उच्च वर्ग में होता था या फिर एकदम ही लोअर क्लास में महिलायें या पुरुष एक-दूसरे को छोड़कर किसी और के साथ रहने लग जाते थे। मिडल क्लास में अगर किसी महिला का पति उसे छोड़ देता था (तब मिडिल क्लास महिलाओं के मन में अपने पति को छोड़ने का विचार दूर-दूर तक नहीं आता था) तो उस महिला प्रति लोग बहुत सहानुभूति रखते थे और पूरे समाज की यह कोशिश होती थी कि जितना भी मान-मनौल करना पड़े, लड़के को इस बात के लिए मना लिया जाए कि वह उस लड़की को न छोड़े। कोई इस बात को उस लड़की से पूछने की जहमत तक नहीं उठाता था कि वो उस आदमी या उसके परिवार के साथ खुश भी रह रही है कि नहीं। अगर शादीशुदा जीवन में दो लोग एक साथ रह रहे हैं तो परिवार की मरजाद बनी रहती थी।
अब समय बदल गया है। लड़कियों को आजादी मिली, वो पढ़ी-लिखीं, अपना
सही-गलत समझने लगी हैं और अब अपने फैसले भी ले रही हैं। तालाक जैसे संवेदनशील मुद्दे
पर बात एक तरफा नहीं की जा सकती है। आज से कुछ दशक पहले अगर लड़के को भी उसके मन
मुताबिक लड़की नहीं मिलती थी तो वो भी परिवार और समाज के दबाव में उस रिश्ते को
बेमन निभाते चला जाता था। अब लड़के भी परिवार और समाज के दवाब से अलग शादी करने, शादी
न करने या फिर डिवोर्स लेने जैसे फैसले भी करने लगे हैं। आज जब एलिट क्लास के बाद
भारत के आम मिडल क्लास परिवारों में तालाक की घटनायें धीरे-धीरे बढ़ती जा रही हैं,
तो यह हमारे लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है; शायद हजारों वर्षों की परंपरा ढह
रही है इसलिए ऐसा हो रहा होगा। मगर क्या डिवोर्स सचमुच इतना गलत है? अगर दो लोगों
को यह लगता है कि वो अब साथ नहीं रह सकते तो उनका अलग-अलग खुश रहने का प्रयास करना
बुरा है?
दुनिया के सबसे खुश देश फिनलैंड और दुनिया के सबसे ताकतवर
देश अमेरिका में सौ में से पचास शादियाँ डिवोर्स के रूप में समाप्त होती हैं। भारत
में यह प्रतिशत अभी तक बहुत ही कम है। भारत में एक हजार शादियों में केवल एक
प्रतिशत में डिवोर्स होता है। तो प्रश्न यह उठता है कि क्या डिवोर्स ले लेने से
हमारी सामाजिक संरचना दरक कर टूट जाएगी; क्या हमारी अर्थव्ययस्था पिछड़ने लगेगी, या
फिर हमारा देश ही नेस्तनाबूद हो जाएगा। इसका जवाब है— ऐसा कुछ नहीं होगा। हमारे समाज
में स्वतंत्रता जितनी बढ़ेगी, हमारे निर्णय लेने की क्षमता में उतना ही इजाफा होता जाएगा।
अपना करिअर चुनने का फैसला हो, अपना जीवनसाथी चुनना हो, किसी विचार से असहमति हो या
फिर तालाक लेने जैसे अहम निर्णय ही क्यों न हों, हम जितने मेच्योर होते जायेंगे, हमारी
दृष्टि उतना ही दूर तक देख पाएगी और हम अपना नफ़ा-नुकसान उतना ही ज्यादा समझ पायेंगे।
मुझे याद है कि आज से डेढ़-दो दशक पहले गाँव या फिर छोटे
शहरों में लड़कियाँ दुपट्टे वाली ड्रेस नहीं पहनती थीं, तो इस तरह की बातें होने
लगती थीं जैसे उसने कितना बड़ा अपराध कर दिया हो। आज मैं विश्वास के साथ कह सकता
हूँ कि अगर कुछ घरों को अपवाद के रूप में छोड़ दिया जाए तो इस बात से किसी को कोई
फर्क ही नहीं पड़ता कि किसी लड़की की देह पर दुपट्टा है भी कि नहीं। अन्तर्जातीय विवाह
को समाज में स्वीकार करने की क्षमता वृद्धि देखी गई है। तालाक के मामले में अभी हमारा
समाज नवजात है, यह हमारे लिए संक्रमण काल है।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि कुछ महिलायें तालाक
के नाम पर मैनटेनेंस के रूप में ऊल-जुलूल माँगे रखती हैं और लड़के तथा उसके परिवार को
बदनाम करने से लेकर दहेज उत्पीड़न के केस में भी धकलने का प्रयास करती हैं। मेंटेनेन्स
के नाम पर बेतुकी माँगें अस्वीकार्य हैं। मैन्टेनेन्स के नाम पर आज जो काम इक्का-दुक्का
लड़कियाँ कर रही हैं, कुछ दशक पहले विवाह के नाम पर ऐसा ही कुछ, किसी दूसरे रूप में,
बहुतायत में लड़के और उनके परिवार वाले लड़की और उनके परिवार के साथ करते थे। आज समाज
में परिवर्तन आ रहा है, हम बराबरी की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसे में अपने मन से रिश्ता चुनना
और छोड़ने जैसे फैसले को बुरा नहीं समझना चाहिए। हाँ चाहे रिश्ता जोड़ना हो या तोड़ना
हो, एक-दूसरे को दोनों चीजों के लिए समय जरूर देना चाहिए। जिस दिन इस बात को समाज सहजता
से स्वीकार करने लगेगा लोगों का जीवन और भी आसान हो जाएगा।
इस लेख के बारे में आपकी क्या राय है हमें जरूर बतायें।
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